इन हसीनों की मोहब्बत का भरोसा क्या है
कोई मर जाए बला से इन्हें परवा क्या है
याद आता है शब-ए-वस्ल किसी का कहना
ख़ैर है ख़ैर से इस वक़्त इरादा क्या है
वो अयादत को मिरी आएँगे ऐसे ही तो हैं
नामा-बर वाक़ई सच कहता है बकता क्या है
दुश्मन-ए-मेहर दग़ाबाज़ सितमगर क़ातिल
जानते भी हो ज़माना तुम्हें कहता क्या है
उठ गए हज़रत-ए-'महमूद' ज़माने से 'रशीद'
न हो उस्ताद तो फिर लुत्फ़ ग़ज़ल का क्या है
ग़ज़ल
इन हसीनों की मोहब्बत का भरोसा क्या है
रशीद रामपुरी