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इन दोनों घर का ख़ाना-ख़ुदा कौन ग़ैर है | शाही शायरी
in donon ghar ka KHana-KHuda kaun ghair hai

ग़ज़ल

इन दोनों घर का ख़ाना-ख़ुदा कौन ग़ैर है

हसरत अज़ीमाबादी

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इन दोनों घर का ख़ाना-ख़ुदा कौन ग़ैर है
शैख़-ए-हरम अबस थे इंकार-ए-दैर है

ऐ यार-ए-बे-ख़बर तू मिरी ले न ले ख़बर
विर्द-ए-ज़बाँ तिरा ही मुझे ज़िक्र-ए-ख़ैर है

ग़ीबत में क्या तअल्लुक़ उसे याद से मिरी
कुछ काम उस का अटका भला मुझ बग़ैर है

पर्वा है कब उसे मिरे रफ़'अ-ए-मलाल से
गह शाग़िल-ए-शिकार कभी गश्त-ए-सैर है

बे-वज्ह क्या हैं हम से ये बे-रूइयाँ तिरी
क्या हम में और तुझ में किसी रू से बैर है

इंसान रक्खे इश्क़ की निस्बत से इम्तियाज़
यूँ क़ैद-ए-ख़्वाब-ओ-ख़ुर में तो हर वहश व तैर है

अपनी गली में देख के 'हसरत' को बोला यार
चल जा परे हो दूर अगर तेरी ख़ैर है