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इन आँखों ने क्या क्या तमाशा न देखा | शाही शायरी
in aankhon ne kya kya tamasha na dekha

ग़ज़ल

इन आँखों ने क्या क्या तमाशा न देखा

दाग़ देहलवी

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इन आँखों ने क्या क्या तमाशा न देखा
हक़ीक़त में जो देखना था न देखा

तुझे देख कर वो दुई उठ गई है
कि अपना भी सानी न देखा न देखा

उन आँखों के क़ुर्बान जाऊँ जिन्हों ने
हज़ारों हिजाबों में परवाना देखा

न हिम्मत न क़िस्मत न दिल है न आँखें
न ढूँडा न पाया न समझा न देखा

मरीज़ान-ए-उल्फ़त की क्या बे-कसी है
मसीहा को भी चारा-फ़रमा न देखा

बहुत दर्द-मंदों को देखा है तू ने
ये सीना ये दिल ये कलेजा न देखा

वो कब देख सकता है उस की तजल्ली
जिस इंसान ने अपना जल्वा न देखा

बहुत शोर सुनते थे इस अंजुमन का
यहाँ आ के जो कुछ सुना था न देखा

सफ़ाई है बाग़-ए-मोहब्बत में ऐसी
कि बाद-ए-सबा ने भी तिनका न देखा

उसे देख कर और को फिर जो देखे
कोई देखने वाला ऐसा न देखा

वो था जल्वा-आरा मगर तू ने मूसा
न देखा न देखा न देखा न देखा

गया कारवाँ छोड़ कर मुझ को तन्हा
ज़रा मेरे आने का रस्ता न देखा

कहाँ नक़्श-ए-अव्वल कहाँ नक़्श-ए-सानी
ख़ुदा की ख़ुदाई में तुझ सा न देखा

तिरी याद है या है तेरा तसव्वुर
कभी 'दाग़' को हम ने तन्हा न देखा