इल्ज़ाम-ए-तीरगी के सदा उस पे आए हैं
जिस ने चराग़ अपने लहू से जलाए हैं
शायद उसे हमारी अना का गुमाँ न था
हम तिश्नगी पटक के समुंदर से आए हैं
ये दिलकशी सुबूत है ऐ जान-ए-शाइ'री
फूलों ने रंग तेरे लबों से चुराए हैं
हैराँ है वो भी वुसअ'त-ए-पर्वाज़ देख कर
जिस ने हमारी फ़िक्र पर पहरे बिठाए हैं
तर्क-ए-तअल्लुक़ात पे वो भी थे ग़म-ज़दा
और हम भी अपनी ज़ात से जंग हार आए हैं
अब नाम क्या बताऊँ कि ग़म किस का है 'सबा'
आँखें मिरी ज़रूर हैं आँसू पराए हैं

ग़ज़ल
इल्ज़ाम-ए-तीरगी के सदा उस पे आए हैं
कामरान ग़नी सबा