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इल्ज़ाम-ए-तीरगी के सदा उस पे आए हैं | शाही शायरी
ilzam-e-tirgi ke sada us pe aae hain

ग़ज़ल

इल्ज़ाम-ए-तीरगी के सदा उस पे आए हैं

कामरान ग़नी सबा

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इल्ज़ाम-ए-तीरगी के सदा उस पे आए हैं
जिस ने चराग़ अपने लहू से जलाए हैं

शायद उसे हमारी अना का गुमाँ न था
हम तिश्नगी पटक के समुंदर से आए हैं

ये दिलकशी सुबूत है ऐ जान-ए-शाइ'री
फूलों ने रंग तेरे लबों से चुराए हैं

हैराँ है वो भी वुसअ'त-ए-पर्वाज़ देख कर
जिस ने हमारी फ़िक्र पर पहरे बिठाए हैं

तर्क-ए-तअल्लुक़ात पे वो भी थे ग़म-ज़दा
और हम भी अपनी ज़ात से जंग हार आए हैं

अब नाम क्या बताऊँ कि ग़म किस का है 'सबा'
आँखें मिरी ज़रूर हैं आँसू पराए हैं