इल्तिजाएँ करने वाले को दुआ से क्या ग़रज़
जिस को हो तुझ से ग़रज़ उस को ख़ुदा से क्या ग़रज़
पी रहा है मुस्कुरा कर जाम-ए-सेहत मौत का
तेरे बीमार-ए-मोहब्बत को शिफ़ा से क्या ग़रज़
इश्क़ कश्ती अपनी ख़ुद खेता है अपने ज़ोर पर
ना-ख़ुदा से वास्ता क्या और ख़ुदा से क्या ग़रज़
मैं हूँ और अब आस्तान-ए-इश्क़ की हैं अज़्मतें
अब मिरे सज्दों को तेरे नक़्श-ए-पा से क्या ग़रज़
दिल को अब ज़ौक़-ए-मोहब्बत के मज़े आने लगे
तुझ से अब तेरी जफ़ा से या वफ़ा से क्या ग़रज़
ओ निगाह-ए-मुल्तफ़ित बे-फ़ाएदा है इल्तिफ़ात
दर्द ही दिल में नहीं है अब दवा से क्या ग़रज़
अब घटाएँ मय-कदे पर छाईं तो मैं क्या करूँ
बे-दिली को दावत-ए-आब-ओ-हवा से क्या ग़रज़
रूह को बालीदगी हो जिस में अब वो दिल नहीं
हम-नशीं मुझ को बहार-ए-जाँ-फ़ज़ा से क्या ग़रज़
किस क़दर ख़ुश रह के मर जाते हैं मज़लूमान-ए-इश्क़
कोई ये समझे इन्हें रोज़-ए-जज़ा से क्या ग़रज़
क़हर को भी जिस के हो इक दरगुज़र से वास्ता
उस की रहमत को मिरे जुर्म-ओ-ख़ता से क्या ग़रज़
अब दिल-ए-नाकाम में वो नाला-ओ-नग़्मा कहाँ
'बिस्मिल' इक साज़-ए-शिकस्ता को सदा से क्या ग़रज़
ग़ज़ल
इल्तिजाएँ करने वाले को दुआ से क्या ग़रज़
बिस्मिल सईदी