इल्तिजा है इज्ज़-ओ-उसरत कुन-फ़कानी और है
गुफ़तुगू-ए-बे-समर मोजिज़-बयानी और है
क़र्या-ए-मोमिन पे हमला कर तो पहले सोच ले
ये इलाक़ा मुख़्तलिफ़ ये राजधानी और है
हर अदालत लिख चुकी है फ़ैसला तो क्या हुआ
फ़ैसला बाक़ी अभी इक आसमानी और है
कुछ न कह कर भी सदाक़त बाप की मनवा गए
असग़र-ए-बे-शीर तेरी बे-ज़बानी और है
एक मिस्रा कह के 'आबिद' ख़ुद को न शाएर समझ
शुस्ता ग़ज़लें हैं कुजा और लन-तरानी और है

ग़ज़ल
इल्तिजा है इज्ज़-ओ-उसरत कुन-फ़कानी और है
आबिद काज़मी