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इल्म-ओ-जाह-ओ-ज़ोर-ओ-ज़र कुछ भी न देखा जाए है | शाही शायरी
ilm-o-jah-o-zor-o-zar kuchh bhi na dekha jae hai

ग़ज़ल

इल्म-ओ-जाह-ओ-ज़ोर-ओ-ज़र कुछ भी न देखा जाए है

आनंद नारायण मुल्ला

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इल्म-ओ-जाह-ओ-ज़ोर-ओ-ज़र कुछ भी न देखा जाए है
बज़्म-ए-साक़ी में दिलों का ज़र्फ़ जाँचा जाए है

कोशिशें हैं दश्त खिंच आए गुलिस्ताँ की तरफ़
और गुलिस्ताँ है कि सू-ए-दश्त खिंचता जाए है

चश्म-ए-तर इक रह गई है यादगार-ए-अहद-ए-इश्क़
गाहे गाहे ये मिरी रातों को चमका जाए है

हो चुके हैं ख़ुश्क सब एहसास के सोते मगर
क़ल्ब-ए-शाइर है जो थोड़ी सी नमी पा जाए है

बोल मीठे प्यार के होंटों में यूँ फँसते हैं आज
तिफ़्ल जैसे घर के अन-जानों में शरमा जाए है

कुछ न कुछ नन्हे से हर तारे की लौ देती है आज
गो ब-ज़ाहिर उस पे शब की तीरगी छा जाए है

इस तरफ़ अम्न-ओ-बक़ा और उस तरफ़ जंग-ओ-फ़ना
देखिए ये कारवाँ किस सम्त 'मुल्ला' जाए है