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इलाज-ए-ज़ख़्म-ए-दिल होता है ग़म-ख़्वारी भी होती है | शाही शायरी
ilaj-e-zaKHm-e-dil hota hai gham-KHwari bhi hoti hai

ग़ज़ल

इलाज-ए-ज़ख़्म-ए-दिल होता है ग़म-ख़्वारी भी होती है

मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद

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इलाज-ए-ज़ख़्म-ए-दिल होता है ग़म-ख़्वारी भी होती है
मगर मक़्तल की मेरे ख़ूँ से गुल-कारी भी होती है

वही क़ातिल वही मुंसिफ़ अदालत उस की वो शाहिद
बहुत से फ़ैसलों में अब तरफ़-दारी भी होती है

ये है तुर्फ़ा-तमाशा कर्बला-ए-अस्र-ए-हाज़िर का
घरों में क़ातिलों के अब अज़ा-दारी भी होती है

तअल्लुक़ उन से टूटा था न टूटा है न टूटेगा
बहुत मज़बूत ज़ंजीर-ए-वफ़ा-दारी भी होती है

वो मेरा दोस्त है 'मंज़ूर' लेकिन जब भी मिलता है
ख़ुलूस-ए-दिल में शामिल कुछ रिया-कारी भी होती है