इलाही ख़ैर हो वो आज क्यूँ कर तन के बैठे हैं 
किसी के क़त्ल करने को भभूका बन के बैठे हैं 
सुबुक-सर है वही जो दूसरों के घर पे जाता है 
जो अपने घर में बैठे हैं वो लाखों मन के बैठे हैं 
ग़ज़ब है क़हर है शामत है आफ़त है क़यामत है 
बग़ल में वो अदू के आज क्यूँ बन-ठन के बैठे हैं 
कहें क्या मुद्दआ' अपना सुनाएँ राज़-ए-दिल क्यूँ कर 
हमारे सामने कुछ आदमी दुश्मन के बैठे हैं 
मज़ा कुंज-ए-लहद में क्यूँ न लूँ मैं साग़र-ए-मुल का 
कि बादा-ख़्वार पास आ कर मिरे मदफ़न के बैठे हैं 
ख़ुदा के वास्ते उन को निकल कर जल्वा दिखला दो 
कि ख़्वाहिश-मंद कूचे में तिरे चितवन के बैठे हैं 
हैं प्यासे हम तो मुद्दत के पिला दे जाम-ए-मय साक़ी 
वो जब चाहें पिएँ जो मुंतज़िर सावन के बैठे हैं 
तबीअ'त हो तो ऐसी हो जो आदत हो तो ऐसी हो 
अभी वो तन के बैठे थे अभी वो मन के बैठे हैं 
अगर रग़बत न हो इस दहर में मूज़ी को मूज़ी से 
तो क्यूँ ख़ार-ए-मुग़ीलाँ पाँव में रहज़न के बैठे हैं 
नहीं मालूम किस को ताड़ते हैं किस से वा'दा है 
ब-वक़्त-ए-शाम पास आ कर जो वो चिलमन के बैठे हैं 
नहीं पर्वा अगर ऐ 'मशरिक़ी' उन को बला जाने 
अगर वो हैं खिंचे बैठे तो हम भी तन के बैठे हैं
        ग़ज़ल
इलाही ख़ैर हो वो आज क्यूँ कर तन के बैठे हैं
सरदार गेंडा सिंह मशरिक़ी

