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इलाही ख़ैर हो अब अपने आशियाने की | शाही शायरी
ilahi KHair ho ab apne aashiyane ki

ग़ज़ल

इलाही ख़ैर हो अब अपने आशियाने की

अनवर ताबाँ

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इलाही ख़ैर हो अब अपने आशियाने की
निगाहें उस की तरफ़ फिर उठीं ज़माने की

हवा-ए-तुंद गुज़र जाए सर-निगूँ हो कर
इक ऐसा आशियाँ कोशिश करो बनाने की

ख़िज़ाँ के आने से हो जाएँ ग़म-ज़दा जो फूल
उन्हें क़सम है बहारों में मुस्कुराने की

किसी की बर्क़-ए-नज़र से न बिजलियों से जले
कुछ इस तरह की हो ता'मीर आशियाने की

वो पूछते हैं कि दिन किस तरह गुज़रते हैं
ये कोई बात है 'ताबाँ' उन्हें बताने की