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इक यादगार चाहिए कोई निशाँ रहे | शाही शायरी
ek yaadgar chahiye koi nishan rahe

ग़ज़ल

इक यादगार चाहिए कोई निशाँ रहे

तालिब बाग़पती

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इक यादगार चाहिए कोई निशाँ रहे
तुर्बत मिरी रहे न रहे आसमाँ रहे

क्यूँ दूद-ए-आह नीम-शबी राएगाँ रहे
इक और आसमाँ न ता-आसमाँ रहे

कोसों निशान-ए-मंज़िल-ए-उल्फ़त निकल गए
हम महव-ए-नग़्मा-ए-जरस-कारवाँ रहे

दिल इंतिहा-पसंद है शौक़-ए-जफ़ा नहीं
वो मेहरबाँ रहे तो बहुत मेहरबाँ रहे

जौर-ओ-जफ़ा-ए-दौर-ए-फ़लक हैं ब-क़द्र-ए-इश्क़
अब जिस क़दर किसी पे कोई मेहरबाँ रहे

अल-मुख़्तसर हयात तड़पने का नाम है
पहलू में दिल रहे कि ख़याल-ए-बुताँ रहे

सोज़-ए-फ़ुग़ाँ ने आह क़फ़स भी जला दिया
अब आदी-ए-क़ुयूद बताओ कहाँ रहे

रंगीनी-ए-जमाल फ़रेब-ए-ख़याल है
'तालिब' वगर्ना दिल में तमन्ना कहाँ रहे