इक वहम की सूरत सर-ए-दीवार-ए-यक़ीं हैं
देखो तो हैं मौजूद न देखो तो नहीं हैं
हम से कशिश-ए-मौजा-ए-रफ़्तार न पूछो
हम अहल-ए-मोहब्बत तो गिरफ़्तार-ए-ज़मीं हैं
इस राह से हट कर गुज़र ऐ नाक़ा-ए-लैला
इस गोशा-ए-सहरा में हम आराम-गुज़ीं हैं
छोड़ें भी तो किस तरह हम इस शहर को छोड़ें
इस नज्द के पाबंद तिरे ख़ाक-नशीं हैं
इस दाएरा-ए-रौशनी-ओ-रंग से आगे
क्या जानिए किस हाल में बस्ती के मकीं हैं
वो तब भी गुरेज़ाँ थे मगर दुश्मन-ए-दिल थे
वो अब भी गुरेज़ाँ हैं मगर दुश्मन-ए-दीं हैं
हर मरहला-ए-बूद था नाबूद की मंज़िल
लेकिन तिरे होते हमें लगता था हमीं हैं
किस तौर समेटें तिरी पलकों के सितारे
कहने को तो शायर हैं मगर अपने तईं हैं
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ग़ज़ल
इक वहम की सूरत सर-ए-दीवार-ए-यक़ीं हैं
नजीब अहमद