इक उम्र मह-ओ-साल की ठोकर में रहा हूँ
मैं संग सही फिर भी सर-ए-राह-ए-वफ़ा हूँ
आप अपने ही ना-कर्दा गुनाहों की सज़ा हूँ
आवाज़ हूँ लेकिन तिरे होंटों से जुदा हूँ
क्या कम है कि रुस्वा-ए-जहाँ हूँ तिरी ख़ातिर
मैं दाग़ हूँ लेकिन तिरे माथे पे सजा हूँ
पानी में नज़र आती है इक चाँद सी सूरत
प्यासा हूँ मगर देर से दरिया पे खड़ा हूँ
इक तू ही नहीं और भी ख़ूबान-ए-जहाँ हैं
तुझ को नहीं पाया है तो औरों से मिला हूँ
सब देस मिरे देस हैं सब लोग मिरे लोग
क्या जानिए मैं कौन सी मिट्टी का बना हूँ
ग़ज़ल
इक उम्र मह-ओ-साल की ठोकर में रहा हूँ
असग़र गोरखपुरी