इक उम्र की और ज़रूरत है वही शाम-ओ-सहर करने के लिए
वो बात जो तुम से कह न सके उसे बार-ए-दिगर करने के लिए
कभी ज़िक्र किया तिरी ज़ुल्फ़ों का और जाती शाम को रोक लिया
कभी याद किया तिरे चेहरे को आग़ाज़-ए-सहर करने के लिए
फ़ुटपाथ पे भी सोने न दिया तिरे शहर के इज़्ज़त-दारों ने
हम कितनी दूर से आए थे इक रात बसर करने के लिए
उस आँख ने जिस की क़िस्मत में सच-मुच के दर-ओ-दीवार न थे
ख़्वाबों के नगर आबाद किए हसरत की नज़र करने के लिए
इस बेहिस दुनिया के आगे किसी लहर की पेश नहीं जाती
अब बहर का बहर उछाल कोई इसे ज़ेर-ओ-ज़बर करने के लिए
ग़ज़ल
इक उम्र की और ज़रूरत है वही शाम-ओ-सहर करने के लिए
अहमद मुश्ताक़