इक उम्र दिल की घात से तुझ पर निगाह की
तुझ पर तिरी निगाह से छुप कर निगाह की
रूहों में जलती आग ख़यालों में खिलते फूल
सारी सदाक़तें किसी काफ़िर निगाह की
जब भी ग़म-ए-ज़माना से आँखें हुईं दो-चार
मुँह फेर कर तबस्सुम-ए-दिल पर निगाह की
बागें खिंचीं मसाफ़तें कड़कीं फ़रस रुके
माज़ी की रथ से किस ने पलट कर निगाह की
दोनों का रब्त है तिरी मौज-ए-ख़िराम से
लग़्ज़िश ख़याल की हो कि ठोकर निगाह की
ग़ज़ल
इक उम्र दिल की घात से तुझ पर निगाह की
मजीद अमजद

