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इक तो ये ज़िंदगी ही सरासर फ़रेब है | शाही शायरी
ek to ye zindagi hi sarasar fareb hai

ग़ज़ल

इक तो ये ज़िंदगी ही सरासर फ़रेब है

काशिफ़ रफ़ीक़

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इक तो ये ज़िंदगी ही सरासर फ़रेब है
और उस पे आगही भी बराबर फ़रेब है

रहने दो उन को इश्क़-ओ-जुनूँ के सराब में
तल्ख़ी है उतनी सच में कि बेहतर फ़रेब है

ता'बीर तेरे ख़्वाब की मा'लूम है मुझे
तुझ कुश्ता-ए-गुमाँ का मुक़द्दर फ़रेब है

इक और आसमाँ भी है इस आसमान पर
गोया यहाँ फ़रेब के ऊपर फ़रेब है

है वाक़िआ' कुछ और ही 'काशिफ़' पस-ए-हिजाब
जो आँख देखती है वो मंज़र फ़रेब है