इक तो ख़ुद अपनी ग़मगीनी 
उस पर उन की नुक्ता-चीनी 
अपनी शीरीनी भी तल्ख़ी 
उन की तल्ख़ी भी शीरीनी 
खुल जाएगा ये भी इक दिन 
किस ने किस की राहत छीनी 
काफ़ी है क्या ये कह देना 
सब हालात की है संगीनी 
कर नहीं सकती हम को क़ाइल 
सिर्फ़ इबारत की रंगीनी 
है ये वफ़ा वो जुर्म-ए-मोहब्बत 
है जिस के पादाश यक़ीनी 
क्या मालूम किसी की मुश्किल 
ख़ुद्दारी है या ख़ुद-बीनी 
आप की राय-ए-आली क्या है 
दीन है बेहतर या बे-दीनी 
क्या कहना उस होश-ओ-ख़िरद का 
सूझती है जिस की शौक़ीनी 
अपने दामन को भी देखें 
हो मंज़ूर जिन्हें गुल-चीनी 
अच्छे अच्छों को ऐ हैरत 
ले डूबी है बे-आईनी
 
        ग़ज़ल
इक तो ख़ुद अपनी ग़मगीनी
हैरत शिमलवी

