इक तिश्ना-लब ने बढ़ के जो साग़र उठा लिया
हर बुल-हवस ने मय-कदा सर पर उठा लिया
मौजों के इत्तिहाद का आलम न पूछिए
क़तरा उठा और उठ के समुंदर उठा लिया
तरतीब दे रहा था मैं फ़हरिस्त-ए-दुश्मनान
यारों ने इतनी बात पे ख़ंजर उठा लिया
मैं ऐसा बद-नसीब कि जिस ने अज़ल के रोज़
फेंका हुआ किसी का मुक़द्दर उठा लिया
ग़ज़ल
इक तिश्ना-लब ने बढ़ के जो साग़र उठा लिया
फ़ना निज़ामी कानपुरी