इक तिरा हिज्र दाइमी है मुझे
वर्ना हर चीज़ आरज़ी है मुझे
एक साया मिरे तआक़ुब में
एक आवाज़ ढूँडती है मुझे
मेरी आँखों पे दो मुक़द्दस हाथ
ये अंधेरा भी रौशनी है मुझे
मैं सुख़न में हूँ उस जगह कि जहाँ
साँस लेना भी शाइरी है मुझे
इन परिंदों से बोलना सीखा
पेड़ से ख़ामुशी मिली है मुझे
मैं उसे कब का भूल-भाल चुका
ज़िंदगी है कि रो रही है मुझे
मैं कि काग़ज़ की एक कश्ती हूँ
पहली बारिश ही आख़िरी है मुझे
ग़ज़ल
इक तिरा हिज्र दाइमी है मुझे
तहज़ीब हाफ़ी