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इक तसव्वुर-ए-बे-कराँ था और मैं | शाही शायरी
ek tasawwur-e-be-karan tha aur main

ग़ज़ल

इक तसव्वुर-ए-बे-कराँ था और मैं

कबीर अजमल

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इक तसव्वुर-ए-बे-कराँ था और मैं
दर्द का सैल-ए-रवाँ था और मैं

ग़म का इक आतिश-फ़िशाँ था और मैं
दूर तक गहरा धुआँ था और मैं

किस से मैं उन का ठिकाना पूछता
सामने ख़ाली मकाँ था और मैं

मेरे चेहरे से नुमायाँ कौन था
आइनों का इक जहाँ था और मैं

इक शिकस्ता नाव थी उम्मीद की
एक बहर-ए-बे-कराँ था और मैं

जुस्तुजू थी मंज़िल-ए-मौहूम की
ये ज़मीं थी आसमाँ था और मैं

कौन था जो ध्यान से सुनता मुझे
क़िस्सा-ए-अशुफ़्तगाँ था और मैं

हाथ में 'अजमल' कोई तेशा न था
अज़्म था कोह-ए-गिराँ था और मैं