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इक शम्अ का साया था कि मेहराब में डूबा | शाही शायरी
ek shama ka saya tha ki mehrab mein Duba

ग़ज़ल

इक शम्अ का साया था कि मेहराब में डूबा

मुस्तफ़ा शहाब

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इक शम्अ का साया था कि मेहराब में डूबा
इक मैं कि तिरे हिज्र के गिर्दाब में डूबा

मेरी शब-ए-तारीक का चेहरा हुआ रौशन
सूरज सा कोई शाम को महताब में डूबा

है दीदा-ए-बे-ख़्वाब मिरा कितना फ़रेबी
जब देखिए लगता है किसी ख़्वाब में डूबा

दिल था कि कोई खेल में फेंका हुआ पत्थर
मौजों से जो लड़ता हुआ तालाब में डूबा

खुलता है फ़क़त इतना वो अज़-राह-ए-मुरव्वत
मिलता है मगर मज्लिसी आदाब में डूबा

पाताल की गहराई से उभरा मिरा आँसू
चुपके से फिर इक कूज़ा-ए-बे-आब में डूबा

था जिस का फ़लक-बोस फ़सीलों में तहफ़्फ़ुज़
वो घर भी मिरा वक़्त के सैलाब में डूबा