इक शख़्स रात बंद-ए-क़बा खोलता रहा
शब की सियाहियों में शफ़क़ घोलता रहा
तन्हाइयों में आती रही जब भी उस की याद
साया सा इक क़रीब मिरे डोलता रहा
हुस्न-ए-बहार ख़ूब मगर दीदा-ए-बहार
मोती चमन की ख़ाक पे क्यूँ रोलता रहा
उस ने सुकूत को भी तकल्लुम समझ लिया
कुछ इस अदा-ए-ख़ास से दिल बोलता रहा
हिज्राँ की रात मश्ग़ला-ए-दिल न पूछिए
इस ज़ुल्फ़-ए-ख़म-ब-ख़म की गिरह खोलता रहा
हम कुश्तगान-ए-ख़्वाब गिराँ-गोश ही रहे
सूरज सरों पे वक़्त-ए-सहर बोलता रहा
उस राह-ए-जज़्ब से भी गुज़रना पड़ा 'ज़हीर'
जिस राह में ख़िरद का क़दम डोलता रहा
ग़ज़ल
इक शख़्स रात बंद-ए-क़बा खोलता रहा
ज़हीर काश्मीरी