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इक रिदा-ए-सब्ज़ की ख़्वाहिश बहुत महँगी पड़ी | शाही शायरी
ek rida-e-sabz ki KHwahish bahut mahngi paDi

ग़ज़ल

इक रिदा-ए-सब्ज़ की ख़्वाहिश बहुत महँगी पड़ी

इक़बाल साजिद

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इक रिदा-ए-सब्ज़ की ख़्वाहिश बहुत महँगी पड़ी
वक़्त पड़ने पर हमें बारिश बहुत महँगी पड़ी

हाथ क्या तापे कि पोरों से धुआँ उठने लगा
सर्द रुत में गर्मी-ए-आतिश बहुत महँगी पड़ी

मोम की सीढ़ी पे चढ़ कर छू रहे थे आफ़्ताब
फूल से चेहरों को ये कोशिश बहुत महँगी पड़ी

ख़ार-ए-क़िस्मत क्या निकाले हाथ ज़ख़्मी कर लिए
नाख़ुन-ए-तदबीर की काविश बहुत महँगी पड़ी

इस अमल ने तो कहीं का भी न रक्खा दोस्तो
ख़ुद को चाहे जाने की ख़्वाहिश बहुत महँगी पड़ी

ज़िक्र-ए-क़हत-ए-रंग से पहले ही ताले पड़ गए
हर लब-ए-तस्वीर को जुम्बिश बहुत महँगी पड़ी

तुंद-ख़ू मौजों ने 'साजिद' चाँद साहिल खा लिए
बहर-ए-शब में अम्न की कोशिश बहुत महँगी पड़ी