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इक रौशनी का ज़हर था जो आँख भर गया | शाही शायरी
ek raushni ka zahr tha jo aankh bhar gaya

ग़ज़ल

इक रौशनी का ज़हर था जो आँख भर गया

सोहन राही

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इक रौशनी का ज़हर था जो आँख भर गया
हर दायरा वो सोच का मफ़्लूज कर गया

थी आक़िबत की ख़ामुशी तन्हाइयों की चीख़
दुनिया ये कह रही थी मिरा वक़्त मर गया

जो शहर-ए-दर्द में था घनी छाँव का शजर
कुछ धूप थी कड़ी कि ख़ला में उतर गया

क्या लुत्फ़-ए-तिश्नगी था मुझे कुछ ख़बर नहीं
कितने समुंदरों से मैं प्यासा गुज़र गया

कर के जो बरहना मुझे ग़ैरों की भीड़ में
वो मेरा दर्द-ए-ज़िंदगी जाने किधर गया

ये अजनबी से लोग ये अंजान सा जहाँ
अपने वजूद से ही मैं शायद गुज़र गया