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इक राज़-ए-ग़म-ए-दिल जब ख़ुद रह न सका दिल तक | शाही शायरी
ek raaz-e-gham-e-dil jab KHud rah na saka dil tak

ग़ज़ल

इक राज़-ए-ग़म-ए-दिल जब ख़ुद रह न सका दिल तक

अलीम मसरूर

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इक राज़-ए-ग़म-ए-दिल जब ख़ुद रह न सका दिल तक
होने दो ये रुस्वाई तुम तक हो कि महफ़िल तक

अफ़्साना मोहब्बत का पूरा हो तो कैसे हो
कुछ है दिल-ए-क़ातिल तक कुछ है दिल-ए-बिस्मिल तक

बस एक नज़र जिस की आतिश-ज़न-ए-महफ़िल है
वो बर्क़-ए-मुजस्सम है महदूद मिरे दिल तक

ये राह-ए-मोहब्बत है सब इस में बराबर हैं
भटके हुए राही से खिज़र-ए-रह-ए-मंज़िल तक

है अज़्म-ए-जवाँ सब कुछ तूफ़ान-ए-हवादिस में
साहिल का भरोसा किया ये जाता है साहिल तक