इक क़तरे को दरिया समझा मैं भी कैसा पागल हूँ
हर सपने को सच्चा समझा मैं भी कैसा पागल हूँ
बीच दिलों के वो दूरी थी तय करना आसान न था
आँखों को इक रस्ता समझा मैं भी कैसा पागल हूँ
बड़ा किया था पाल-पोस कर फिर भी इक दिन बिछड़ गए
ख़्वाबों को इक बच्चा समझा मैं भी कैसा पागल हूँ
काँटे सी ख़ुद मेरी शोहरत हर-पल दिल में चुभती है
फ़न को खेल-तमाशा समझा मैं भी कैसा पागल हूँ
तन पर तो उजले कपड़े थे लेकिन मन के काले थे
उन लोगों को अच्छा समझा मैं भी कैसा पागल हूँ
ग़ज़ल
इक क़तरे को दरिया समझा मैं भी कैसा पागल हूँ
देवमणि पांडेय

