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इक क़तरा-ए-मा'नी से अफ़्कार का दरिया हो | शाही शायरी
ek qatra-e-mani se afkar ka dariya ho

ग़ज़ल

इक क़तरा-ए-मा'नी से अफ़्कार का दरिया हो

ख़ावर एजाज़

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इक क़तरा-ए-मा'नी से अफ़्कार का दरिया हो
ऐ ज़र्रा-ए-आगाही अब फैल के सहरा हो

रफ़्ता रहे वाबस्ता हर हाल दरीचे से
फ़र्दा के झरोकों में माज़ी का उजाला हो

ऐ बिछड़ी हुई नद्दी किस दश्त में बहती है
फिर जानिब-ए-दरिया आ और शामिल-ए-दरिया हो

आफ़ाक़-ए-बुलंदी से आवाज़ ये आती है
इक अस्र में शामिल हो इक पल से अलाहदा हो

लम्हे की हक़ीक़त क्या सदियों के तनाज़ुर में
लेकिन जिसे तू चाहे वो रश्क-ए-ज़माना हो

इस धूप के राही को अंजाम से कुछ पहले
इक ऐसी मसाफ़त दे जिस पर तिरा साया हो

ऐसा न हो वो माँगे तस्दीक़ का इक लम्हा
और हम ने वही लम्हा महफ़ूज़ न रक्खा हो