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इक परिंदा सर-ए-दीवार भी बाक़ी न रहा | शाही शायरी
ek parinda sar-e-diwar bhi baqi na raha

ग़ज़ल

इक परिंदा सर-ए-दीवार भी बाक़ी न रहा

माह तलअत ज़ाहिदी

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इक परिंदा सर-ए-दीवार भी बाक़ी न रहा
अब तो पर्वाज़ का दीदार भी बाक़ी न रहा

हब्स ऐसा था कि साए में सुलग उट्ठे गुलाब
लू चली ऐसी कि गुलज़ार भी बाक़ी न रहा

लोग दम साध गए ख़ौफ़ ने घेरा ऐसे
कोई अंदेशा-ए-बे-कार भी बाक़ी न रहा

हादिसा क्या हुआ बिखरे हुए सन्नाटे में
लफ़्ज़ से रिश्ता-ए-इज़हार भी बाक़ी न रहा

एक वहशत ही मताअ-ए-ग़म-ए-जानाँ निकली
लुत्फ़-ए-दिलदारी-ए-ग़म-ख़्वार भी बाक़ी न रहा

जाँ सिसकती रही ख़्वाहिश के बयाबानों में
शौक़-ए-हर-लहज़ा का आज़ार भी बाक़ी न रहा

दिल भी यादों की कड़ी धूप में कुम्हला सा गया
और कोई साया-ए-दीवार भी बाक़ी न रहा

ऐसी वीरानी है ख़ुद मौत भी कतरा के चली
कोई मरने का सज़ा-वार भी बाक़ी न रहा