इक पल कहीं रुके थे सफ़र याद आ गया
फूलों को हँसता देख के घर याद आ गया
तितली के साथ आई तिरी याद भी हमें
रक्खा हुआ किताब में पर याद आ गया
बैठे थे जिस की छाँव में हम दोनों मुद्दतों
क्या जाने आज क्यूँ वह शजर याद आ गया
सरहद से कोई आया है फिर ख़ून माँगने
इक माँ को अपना लख़्त-ए-जिगर याद आ गया
फेंका था मैं ने तंज़ का पत्थर किसी की सम्त
'ग़ालिब' की तरह अपना ही सर याद आ गया
ग़ज़ल
इक पल कहीं रुके थे सफ़र याद आ गया
फ़ारूक़ बख़्शी