इक निगाह-ए-बेरुख़ी से ग़र्क़ होते ज़ाइक़े
लो चखो तहलील ग़र्ब-ओ-शर्क़ होते ज़ाइक़े
तब समझ में आ भी जाते उन की दूरी के सबब
जब ज़मीन-ओ-आसमाँ के फ़र्क़ होते ज़ाइक़े
तू समझ सकता नहीं है इश्क़ की मेराज को
तू ने चक्खे ही नहीं हैं बर्क़ होते ज़ाइक़े
उम्र गुज़री पर न समझा ज़ाइक़ों के फ़र्क़ को
ज़र्क़ लगते ज़ाइक़े थे बर्क़ होते ज़ाइक़े
ग़ज़ल
इक निगाह-ए-बेरुख़ी से ग़र्क़ होते ज़ाइक़े
सरवत मुख़तार