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इक नक़्श बिगड़ने से इक हद के गुज़रने से | शाही शायरी
ek naqsh bigaDne se ek had ke guzarne se

ग़ज़ल

इक नक़्श बिगड़ने से इक हद के गुज़रने से

मुबीन मिर्ज़ा

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इक नक़्श बिगड़ने से इक हद के गुज़रने से
क्या क्या नहीं मर जाता इक ख़्वाब के मरने से

अब अरसा-ए-हस्ती में सद-रंग मनाज़िर हैं
इस आइना-ए-दिल में इक अक्स उतरने से

इक उम्र की काविश से हम ने तो यही जाना
सब काम सँवरते हैं इस दल के सँवरने से

राज़ी हैं ब-सद रग़बत ऐ जान-ए-तमन्ना हम
ये बात जो बन जाए सौ बार भी मरने से

वो मौज ही ऐसी थी जंगल जो उड़ा ले जाए
किस तरह बचाते फिर हम ख़ुद को बिखरने से