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इक नफ़स नाबूद से बाहर ज़रा रहता हूँ मैं | शाही शायरी
ek nafas nabud se bahar zara rahta hun main

ग़ज़ल

इक नफ़स नाबूद से बाहर ज़रा रहता हूँ मैं

ज़ुल्फ़िक़ार आदिल

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इक नफ़स नाबूद से बाहर ज़रा रहता हूँ मैं
गुम-शुदा चीज़ों के अंदर लापता रहता हूँ मैं

जितनी बातें याद आती हैं वो लिख लेता हूँ सब
और फिर एक एक कर के भूलता रहता हूँ मैं

गर्म-जोशी ने मुझे झुलसा दिया था एक दिन
अंदरूँ के सर्द-ख़ाने में पड़ा रहता हूँ मैं

ख़र्च कर देता हूँ सब मौजूद अपने हाथ से
और ना-मौजूद की धन में लगा रहता हूँ मैं

जितनी गहराई है 'आदिल' उतनी ही तन्हाई है
बस कि सतह-ए-ज़िंदगी पर तैरता रहता हूँ मैं