EN اردو
इक लौ थी मिरे ख़ून में तहलील तो ये थी | शाही शायरी
ek lau thi mere KHun mein tahlil to ye thi

ग़ज़ल

इक लौ थी मिरे ख़ून में तहलील तो ये थी

इक़बाल कौसर

;

इक लौ थी मिरे ख़ून में तहलील तो ये थी
इक बर्क़ सी रौ थी मिरी क़िंदील तो ये थी

तेरे रुख़-ए-ख़ामोश से मेरी रग-ए-जाँ तक
जो काम किया आँख ने तर्सील तो ये थी

बनना था तो बनता न फ़रिश्ता न ख़ुदा मैं
इंसान ही बनता मिरी तकमील तो ये थी

साँपों के तसल्लुत में थे चिड़ियों के बसेरे
मफ़्तूह घराने! तिरी तमसील तो ये थी

टीले का खंडर सदियों की तारीख़ लिए था
इजमाल बताता था कि तफ़्सील तो ये थी

वो जानता था सज्दा फ़क़त तुझ को रवा है
पल्टा न फिर इस हुक्म से तामील तो ये थी

इक ख़्वाब धुँदलकों में बिखरता हुआ 'कौसर'
आख़िर रुख़-ए-ताबीर की तश्कील तो ये थी