इक लम्हा-ए-विसाल था वापस न आ सका
वो वक़्त की मिसाल था वापस न आ सका
हर इक को अपना हाल सुनाने से फ़ाएदा
मेरा जो हम-ख़याल था वापस न आ सका
शायद मिरे फ़िराक़ में घर से चला था वो
ज़ख़्मों से पाएमाल था वापस न आ सका
शायद हुजूम-ए-सदमा-ए-फ़ुर्क़त के घाव से
वो इस क़दर निढाल था वापस न आ सका
शायद मैं उस को देख के सब को भुला ही दूँ
उस को ये एहतिमाल था वापस न आ सका
कितने ख़याल रूप हक़ीक़त का पा गए
जो मरकज़-ए-ख़याल था वापस न आ सका
मुझ को मिरे वजूद से जो कर गया जुदा
कैसा वो बा-कमाल था वापस न आ सका
हर दम 'रईस' वो तो नज़र के है सामने
तेरा तो ये ख़याल था वापस न आ सका
ग़ज़ल
इक लम्हा-ए-विसाल था वापस न आ सका
रईस वारसी