इक लफ़्ज़-ए-मोहब्बत के बने लाख फ़साने
तोहमत के बहाने कभी शोहरत के बहाने
किस को ये ख़बर थी कि बिखर जाएँगे पल में
आँखों ने सजा रक्खे थे जो ख़्वाब सुहाने
इक ज़ख़्म-ए-जुदाई है कि नासूर बना है
करता हूँ तुझे याद इसी ग़म के बहाने
अक़दार का फ़ुक़्दान हवसनाकी-ओ-वहशत
सब पर्दे हटा रक्खे हैं अब शर्म-ओ-हया ने
फ़ुर्क़त की शब-ए-कर्ब के जाते हुए लम्हो
कब लौट के आओगे मुझे फिर से रुलाने
भाने लगी जब दिल को ज़रा बज़्म की रौनक़
तन्हाई मिरी आ गई फिर मुझ को मनाने
वो गुल हूँ जो ठहराया गया तंग-ए-बहाराँ
पामाल किया ख़ुद ही जिसे बाद-ए-सबा ने
शाकिर हूँ मैं हर हाल में राज़ी-ब-रज़ा हूँ
तस्कीन की दौलत मुझे बख़्शी है ख़ुदा ने
आज़ार-ए-ग़म-ए-दिल को न होना था शिफ़ायाब
कुछ काम किया 'चाँद' दवा ने न दुआ ने
ग़ज़ल
इक लफ़्ज़-ए-मोहब्बत के बने लाख फ़साने
महेंद्र प्रताप चाँद