इक कुतुब-ख़ाना हूँ अपने दरमियाँ खोले हुए
सब किताबें सफ़्हा-ए-हर्फ़-ए-ज़ियाँ खोले हुए
इक जुदाई पर हूँ हैराँ जिस तरह कोई पहाड़
क़त्ल पर हाबील के अपना दहाँ खोले हुए
बद-दुआ-ए-ना-रसाई काम अपना कर चुकी
अपनी सारी परतें है क्यूँ आसमाँ खोले हुए
बंद रक्खो मुट्ठियों को रेत उड़ती है यहाँ
जाने कौन आ जाए दस्त-ए-राएगाँ खोले हुए
पल दो पल का साथ है अब रौशनी का चल पड़ें
शाम है इक कतबा-ए-क़ब्र-ए-जवाँ खोले हुए
साहिलों पे लिक्खी तहरीर-ए-हवा पढ़ता भी कौन
कश्तियाँ थीं ख़्वाहिशों के बादबाँ खोले हुए
ग़ज़ल
इक कुतुब-ख़ाना हूँ अपने दरमियाँ खोले हुए
मुसव्विर सब्ज़वारी