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इक कुतुब-ख़ाना हूँ अपने दरमियाँ खोले हुए | शाही शायरी
ek kutub-KHana hun apne darmiyan khole hue

ग़ज़ल

इक कुतुब-ख़ाना हूँ अपने दरमियाँ खोले हुए

मुसव्विर सब्ज़वारी

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इक कुतुब-ख़ाना हूँ अपने दरमियाँ खोले हुए
सब किताबें सफ़्हा-ए-हर्फ़-ए-ज़ियाँ खोले हुए

इक जुदाई पर हूँ हैराँ जिस तरह कोई पहाड़
क़त्ल पर हाबील के अपना दहाँ खोले हुए

बद-दुआ-ए-ना-रसाई काम अपना कर चुकी
अपनी सारी परतें है क्यूँ आसमाँ खोले हुए

बंद रक्खो मुट्ठियों को रेत उड़ती है यहाँ
जाने कौन आ जाए दस्त-ए-राएगाँ खोले हुए

पल दो पल का साथ है अब रौशनी का चल पड़ें
शाम है इक कतबा-ए-क़ब्र-ए-जवाँ खोले हुए

साहिलों पे लिक्खी तहरीर-ए-हवा पढ़ता भी कौन
कश्तियाँ थीं ख़्वाहिशों के बादबाँ खोले हुए