इक ख़ल्क़ जो हर सम्त से आई तिरे दर पर
आया नज़र-अंदाज़ ख़ुदाई तिरे दर पर
थी जिस की तमन्ना दिल-ए-मुश्ताक़ को हर दम
वो चीज़ अगर पाई तो पाई तिरे दर पर
उश्शाक़ के आगे न लड़ा ग़ैरों से आँखें
डर है कि न हो जाए लड़ाई तिरे दर पर
देखी जो यहाँ आ के झड़ी अब्र-ए-करम की
सब दिल की लगी हम ने बुझाई तिरे दर पर
इस नफ़स ही कम-बख़्त ने रोका था 'शरफ़' को
दुश्वार न थी वर्ना रसाई तिरे दर पर

ग़ज़ल
इक ख़ल्क़ जो हर सम्त से आई तिरे दर पर
शरफ़ मुजद्दिदी