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इक ख़लिश को हासिल-ए-उम्र-ए-रवाँ रहने दिया | शाही शायरी
ek KHalish ko hasil-e-umr-e-rawan rahne diya

ग़ज़ल

इक ख़लिश को हासिल-ए-उम्र-ए-रवाँ रहने दिया

अदीब सहारनपुरी

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इक ख़लिश को हासिल-ए-उम्र-ए-रवाँ रहने दिया
जान कर हम ने उन्हें ना-मेहरबाँ रहने दिया

कितनी दीवारों के साए हाथ फैलाते रहे
इश्क़ ने लेकिन हमें बे-ख़ानुमाँ रहने दिया

आरज़ू-ए-इश्क़ भी बख़्शी दिलों को इश्क़ ने
फ़ासला मेरे और उन के दरमियाँ रहने दिया

अपने अपने हौसलों अपनी तलब की बात है
चुन लिया हम ने उन्हें सारा जहाँ रहने दिया

ये भी क्या जीने में जीना है बग़ैर उन के 'अदीब'
शम्अ गुल कर दी गई बाक़ी धुआँ रहने दिया