इक ख़लिश इक कर्ब पिन्हाँ मेरी ख़ाकिस्तर में है
मेरा दुश्मन हादिसा ये है कि मेरे घर में है
कौन किस के अश्क पोंछे कौन किस का दुख बटाए
जो है वो महरूमियों के गुम्बद-ए-बे-दर में है
ज़र्ब-ए-तेशा चाहिए और दस्त-ए-आज़र चाहिए
इक जहान-ए-ख़ाल-ओ-ख़द ख़्वाबीदा हर पत्थर में है
इस ज़माने में मिरी सादा-दिली मेरा ख़ुलूस
एक मंज़र है मगर बे-रब्त पस-मंज़र में है
बेच दी 'ख़ावर' यहाँ यारों ने नामूस-ए-वफ़ा
तू भी प्यारे किस भुलावे में है किस चक्कर में है

ग़ज़ल
इक ख़लिश इक कर्ब पिन्हाँ मेरी ख़ाकिस्तर में है
ख़ावर रिज़वी