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इक कार-ए-गराँ है खेल नहीं | शाही शायरी
ek kar-e-garan hai khel nahin

ग़ज़ल

इक कार-ए-गराँ है खेल नहीं

शफ़ीक़ देहलवी

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इक कार-ए-गराँ है खेल नहीं
ज़िंदगी इम्तिहाँ है खेल नहीं

हर क़दम सोच कर यहाँ रखना
दश्त-ए-उम्र-ए-रवाँ है खेल नहीं

ये मिटी है न मिट सकेगी कभी
उर्दू-ए-सख़्त-जाँ है खेल नहीं

तीरगी शब की क्यूँ न दम तोड़े
ज़ख़्म-ए-दिल ज़ौ-फ़िशाँ है खेल नहीं

कुछ भी मुमकिन है देखिए क्या हो
लुत्फ़-ए-चारा-गराँ है खेल नहीं

जाने लावा सुलग उठे किस वक़्त
दिल कि आतिश-फ़िशाँ है खेल नहीं

कौन समझेगा उन की बात 'शफ़ीक़'
आइनों की ज़बाँ है खेल नहीं