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इक जुस्तुजू सदा ही से ज़ेहन-ए-बशर में है | शाही शायरी
ek justuju sada hi se zehn-e-bashar mein hai

ग़ज़ल

इक जुस्तुजू सदा ही से ज़ेहन-ए-बशर में है

जहाँगीर नायाब

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इक जुस्तुजू सदा ही से ज़ेहन-ए-बशर में है
जब से मिली ज़मीन मुसलसल सफ़र में है

हर-चंद मेरे साथ उदासी सफ़र में है
रौशन चराग़-ए-शौक़ मगर चश्म-ए-तर में है

मल्लाह कह रहा है कि साहिल है बस क़रीब
लेकिन मुझे पता है कि कश्ती भँवर में है

तुम से कभी जो बोल न पाया मैं एक बात
बन कर ख़लिश वो आज भी मेरे जिगर में है

बर्बादियों की ज़द पे फ़क़त शाख़-ए-गुल नहीं
गुलशन तमाम नरग़ा-ए-बर्क़-ओ-शरर में है

जब से मैं उन के हल्का-ए-बैअ'त में आ गया
'नायाब' एक रौशनी फ़िक्र-ओ-नज़र में है