इक जुस्तुजू सदा ही से ज़ेहन-ए-बशर में है
जब से मिली ज़मीन मुसलसल सफ़र में है
हर-चंद मेरे साथ उदासी सफ़र में है
रौशन चराग़-ए-शौक़ मगर चश्म-ए-तर में है
मल्लाह कह रहा है कि साहिल है बस क़रीब
लेकिन मुझे पता है कि कश्ती भँवर में है
तुम से कभी जो बोल न पाया मैं एक बात
बन कर ख़लिश वो आज भी मेरे जिगर में है
बर्बादियों की ज़द पे फ़क़त शाख़-ए-गुल नहीं
गुलशन तमाम नरग़ा-ए-बर्क़-ओ-शरर में है
जब से मैं उन के हल्का-ए-बैअ'त में आ गया
'नायाब' एक रौशनी फ़िक्र-ओ-नज़र में है
ग़ज़ल
इक जुस्तुजू सदा ही से ज़ेहन-ए-बशर में है
जहाँगीर नायाब