इक जल-थल थी कल तक ये ज़मीं ये दश्त भी कल तक दरिया थे
ये शोर था कल इक सन्नाटा ये शहर भी कल तक सहरा थे
आग़ाज़ अपना वहशत बसरी अंजाम अपना शोरीदा-सरी
हम आज भी हैं बदनाम बहुत हम कल भी निहायत रुस्वा थे
तन्हाई-ए-ज़ात का साया है तन्हाई अपना विर्सा है
हम आज भी हैं तन्हा तन्हा हम कल भी तन्हा तन्हा थे
माज़ी के ख़राबों में भी कहीं लौ देता रहा सूरज अपना
माज़ी के ख़राबों में भी हम इक ख़्वाब-ए-जहान-फ़र्दा थे
अपना ही तो है शहकार-ए-अमल तहज़ीब का ये ज़िंदाँ 'अकबर'
हम आज हैं शहरों के क़ैदी कल तक आवारा-ए-सहरा थे

ग़ज़ल
इक जल-थल थी कल तक ये ज़मीं ये दश्त भी कल तक दरिया थे
अकबर हैदरी