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इक इंक़लाब कि यकसर था उस के जाते ही | शाही शायरी
ek inqalab ki yaksar tha uske jate hi

ग़ज़ल

इक इंक़लाब कि यकसर था उस के जाते ही

मुस्तफ़ा शहाब

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इक इंक़लाब कि यकसर था उस के जाते ही
कि दिल लहू नहीं पत्थर था उस के जाते ही

वो उम्र भर मुझे जिस से रिहाई दे न सका
मैं उस हिसार के बाहर था उस के जाते ही

उसी के दम से था क़ाएम निज़ाम-ए-मय-ख़ाना
कहीं सुबू कहीं साग़र था उस के जाते ही

मुझे तो पहले ही अश्कों ने रास्ता न दिया
ग़ुबार-ए-राह भी सर पर था उस के जाते ही

तमाम शहर इक तस्वीर बन गया था 'शहाब'
अजीब दीद का मंज़र था उस के जाते ही