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इक इंफ़िआल को ताक़त समझ रहे हो तुम | शाही शायरी
ek infial ko taqat samajh rahe ho tum

ग़ज़ल

इक इंफ़िआल को ताक़त समझ रहे हो तुम

जमील मज़हरी

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इक इंफ़िआल को ताक़त समझ रहे हो तुम
सवाल ये है कि किस तरह सोचते हो तुम

बहार आग न देगी तुम्हारे चूल्हों को
ये और बात कि इस से बहल गए हो तुम

दयार-ए-वहम-ओ-गुमाँ में न अब हरम है न दैर
उजड़ी चुकी है वो बस्ती जिधर चले हो तुम

दिया न इश्क़ ने जब कुछ तो अक़्ल क्या देगी
अब इस से माँगते हो चैन बावले हो तुम

जबीन-ए-शौक़ को अपनी कहाँ झुकाना था
कहाँ झुकी है ज़रूरत कहाँ झुके हो तुम

पसंद आएगी क्यूँ अपने देस की कोई चीज़
बिदेसियों के निवाले पे जी रहे हो तुम

न मिल सका जिसे ईंधन जलेगी आग वो क्या
दिल-ए-'जमील' को नाहक़ कुरेदते हो तुम