इक इंफ़िआल को ताक़त समझ रहे हो तुम
सवाल ये है कि किस तरह सोचते हो तुम
बहार आग न देगी तुम्हारे चूल्हों को
ये और बात कि इस से बहल गए हो तुम
दयार-ए-वहम-ओ-गुमाँ में न अब हरम है न दैर
उजड़ी चुकी है वो बस्ती जिधर चले हो तुम
दिया न इश्क़ ने जब कुछ तो अक़्ल क्या देगी
अब इस से माँगते हो चैन बावले हो तुम
जबीन-ए-शौक़ को अपनी कहाँ झुकाना था
कहाँ झुकी है ज़रूरत कहाँ झुके हो तुम
पसंद आएगी क्यूँ अपने देस की कोई चीज़
बिदेसियों के निवाले पे जी रहे हो तुम
न मिल सका जिसे ईंधन जलेगी आग वो क्या
दिल-ए-'जमील' को नाहक़ कुरेदते हो तुम
ग़ज़ल
इक इंफ़िआल को ताक़त समझ रहे हो तुम
जमील मज़हरी