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इक ग़ज़ल उस पे लिखूँ दिल का तक़ाज़ा है बहुत | शाही शायरी
ek ghazal us pe likhun dil ka taqaza hai bahut

ग़ज़ल

इक ग़ज़ल उस पे लिखूँ दिल का तक़ाज़ा है बहुत

कृष्ण बिहारी नूर

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इक ग़ज़ल उस पे लिखूँ दिल का तक़ाज़ा है बहुत
इन दिनों ख़ुद से बिछड़ जाने का धड़का है बहुत

रात हो दिन हो कि ग़फ़लत हो कि बेदारी हो
उस को देखा तो नहीं है उसे सोचा है बहुत

तिश्नगी के भी मक़ामात हैं क्या क्या यानी
कभी दरिया नहीं काफ़ी कभी क़तरा है बहुत

मिरे हाथों की लकीरों के इज़ाफ़े हैं गवाह
मैं ने पत्थर की तरह ख़ुद को तराशा है बहुत

कोई आया है ज़रूर और यहाँ ठहरा भी है
घर की दहलीज़ पे ऐ 'नूर' उजाला है बहुत