इक गहरी चुप अंदर अंदर रूह में उतरी जाए
ला-फ़ानी हो जाऊँ ये ख़्वाहिश पल पल बढ़ती जाए
ये पत्थर सी तन्हाई ये भारी बोझल रात
जाने कैसा बोझ है दिल पर नस नस टूटी जाए
एक नया अन-देखा मंज़र मुझ से करे कलाम
एक नई अन-जानी ख़ुश्बू मुझ से लिपटी जाए
उस का साथ इक उलझी डोर है भागते लम्हों की
जितना सुलझाऊँ मैं उस को उतना उलझती जाए
सारे नक़्श तमन्नाओं के रौशन होते जाएँ
खिड़की में उस की परछाईं गहरी होती जाए
'रम्ज़' अधूरे ख़्वाबों की ये घटती बढ़ती छाँव
तुम से देखी जाए तो देखो मुझ से न देखी जाए
ग़ज़ल
इक गहरी चुप अंदर अंदर रूह में उतरी जाए
मोहम्मद अहमद रम्ज़