इक फ़ज़ा शोख़ सी गुनगुनाने लगी
मन की बे-कल सी कलियाँ खिलाने लगी
भागती मंज़िलें सोचते रास्ते
एक अन-थक थकन रास आने लगी
शोख़ नद्दी की बहुत हुई रागनी
दूधिया चाँदनी में नहाने लगी
इक तिरे नूर से है मुनव्वर फ़ज़ा
इक तिरी मोहनी दिल लुभाने लगी
साअ'तों की हसीं चम्पई रौशनी
नित नया शोख़ जादू जगाने लगी
फिर कभी याद की हद भरी कामना
आहटों ही से दिल को लगाने लगी
शोख़ पलकों पे रुकती हुई इक नमी
कुछ उचटते तअ'ल्लुक़ निभाने लगी
रुख़ बदलती हुई बे-रुख़ी आख़िरश
सामने बैठ कर मुस्कुराने लगी

ग़ज़ल
इक फ़ज़ा शोख़ सी गुनगुनाने लगी
कृष्ण मुरारी