इक दिया ऐसा बुझा है मुझ में
नौहागर! अब के हवा है मुझ में
अक्स-दर-अक्स बिखरना है मुझे
जाने क्या टूट गया है मुझ में
न कोई ख़्वाब, न आँसू न ख़याल
क्या अजब क़हत पड़ा है मुझ में
चश्म हैराँ है, सर-ए-आईना
रूनुमा कौन हुआ है मुझ में
दिल सुलगने का सबब हिज्र, न वस्ल
मसअला इस से सिवा है मुझ में
मुन्कशिफ़! आज तलक हो न सका
मैं ख़ला हूँ कि ख़ला है मुझ में
ग़ज़ल
इक दिया ऐसा बुझा है मुझ में
ख़ालिद मोईन