इक दिन ख़ुद को अपने पास बिठाया हम ने
पहले यार बनाया फिर समझाया हम ने
ख़ुद भी आख़िर-कार उन्ही वा'दों से बहले
जिन से सारी दुनिया को बहलाया हम ने
भीड़ ने यूँही रहबर मान लिया है वर्ना
अपने अलावा किस को घर पहुँचाया हम ने
मौत ने सारी रात हमारी नब्ज़ टटोली
ऐसा मरने का माहौल बनाया हम ने
घर से निकले चौक गए फिर पार्क में बैठे
तन्हाई को जगह जगह बिखराया हम ने
इन लम्हों में किस कि शिरकत कैसी शिरकत
उसे बुला कर अपना काम बढ़ाया हम ने
दुनिया के कच्चे रंगों का रोना रोया
फिर दुनिया पर अपना रंग जमाया हम ने
जब 'शारिक़' पहचान गए मंज़िल की हक़ीक़त
फिर रस्ते को रस्ते भर उलझाया हम ने
ग़ज़ल
इक दिन ख़ुद को अपने पास बिठाया हम ने
शारिक़ कैफ़ी