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इक धन को एक धन से अलग कर लूँ और गाऊँ | शाही शायरी
ek dhan ko ek dhan se alag kar lun aur gaun

ग़ज़ल

इक धन को एक धन से अलग कर लूँ और गाऊँ

अफ़ज़ाल नवेद

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इक धन को एक धन से अलग कर लूँ और गाऊँ
साँसों का इक चराग़ कहीं धर लूँ और गाऊँ

गंधार की शुआ चुनूँ फिर शुआ'ओं से
याक़ूत सत्ह-ए-संग से चुन कर लूँ और गाऊँ

सर-चश्मा-ए-वजूद को हरगिज़ न छेड़ूँ मैं
कोयल से इक इरादा-ए-तेवर लूँ और गाऊँ

भेरों में दिन निकलता दिखाऊँ मैं दहर को
और सुब्ह तक चराग़ों की लो कर लूँ और गाऊँ

और फैल जाऊँ चारों तरफ़ बाज़गश्त सा
लब पर तिरा वज़ीफ़ा-ए-अज़बर लूँ और गाऊँ

और दश्त मेरे साथ रहे बहता मेघ में
बारिश में अपने वास्ते इक घर लूँ और गाऊँ

कोयल पुकारती रहे जामुन के पेड़ पर
मन में किसी नफ़स का सुबू भर लूँ और गाऊँ

कल्याण के उजाले में फिरती है शब कहीं
मैं शाम ही से काँधे पे चादर लूँ और गाऊँ

आ जाऊँ अपनी गर्दिश-ए-सय्यारगाँ को मैं
चक्कर पे एक दूसरा चक्कर लूँ और गाऊँ

ये वक़्त है बहाए हुए काएनात को
नद्दी की लहरों से कोई झालर लूँ और गाऊँ

रहती है बस-कि राख ज़मानों की ताक़ पर
मैं भी चराग़-ए-हिज्र का चक्कर लूँ और गाऊँ

जलने लगे जो शहर तो सारा उंडेल दूँ
जा कर किसी किनारे से फिर भर लूँ और गाऊँ

आँगन में जागते हैं गुल-ओ-लाला रात भर
मैं भी किसी के काँटों का बिस्तर लूँ और गाऊँ

आवाज़ चकना-चूर हो शोर-ए-लहद के बीच
संग-ए-मज़ार से कोई ठोकर लूँ और गाऊँ

मिलना किसी से रख़ना-ए-आवारगी तो है
मिल कर किसी से दूसरा मेहवर लूँ और गाऊँ

रुख़्सत के वक़्त टूट गया जो पहाड़ था
सीने में तेरे पाँव के कंकर लूँ और गाऊँ

लगने लगा हुजूम-ए-शर-अंगेज़ी हर तरफ़
यकसूई-ए-ख़ुमार को ही सर लूँ और गाऊँ

जो जो परिंदा बैठा हुआ था सो उड़ गया
पहलू में अपना ख़ाली सा पिंजर लूँ और गाऊँ

दिन रात में बड़े बड़े आते हैं इंक़लाब
लेकिन मैं तेरा नाम बराबर लूँ और गाऊँ

झुकने लगी है क़ौस-ए-क़ुज़ह सुब्ह-दम 'नवेद'
ये टोकरी गुलाब की सर पर लूँ और गाऊँ